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विपत्ति में माँ कुंती और पांडवों की शरणगाह रहा है,डासना माँ जगदम्बा महाकाली मंदिर

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सुर्या बुलेटिन(गाजियाबाद)  गाजियाबाद से हापुड़ जाते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग -24 पर सब से पहले डासना कस्बा पडता है । इसी कस्बे में राजमार्ग से चंद कदमों की दूरी पर स्थित प्राचीन देवी मन्दिर है जो सनातन धर्म के मानने वालों के प्राचीनतम् तीर्थ स्थलों में से एक है । यह स्थान एक विलुप्त शक्तिपीठ है ।

उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा पारदेश्वर शिवलिंग

माँ के सामने शेर की समाधि

जन विश्वास के अनुसार शिव शक्तिधाम डासना जो मूलत एक शिवमन्दिर है , इसकी स्थापना भगवान शिव के परमभक्त भगवान श्री परशुराम जी ने की थी और उन्होनें स्वंय अपने हाथों से यहाँ शिव लिंग की स्थापना की थी । तभी से साक्षात् शिव अपनी शक्तियों के साथ उस मन्दिर में विराजमान है । लाक्ष्यगृह दहन के बाद पांडवों ने अपनी माँ कुन्ती के साथ इस मन्दिर में शरण ली थी । समय समय पर अनेकों ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने इस स्थान पर साधना की । कलांतर में यहाँ शक्ति साधकों का वर्चस्व हो गया और उन्होनें यहाँ अष्टभुजी भवानी के रूप में जगदम्बा महाकाली प्राण प्रतिष्ठा की ।
यहाँ स्थापित महाकाली की प्रतिमा संपूर्ण भारतवर्ष में निर्विवाद रूप से सबसे प्राचीन , सबसे जीवन्त और सबसे सुन्दर प्रतिमा है । बल्कि यह कहना चाहिये कि यहां प्रतिमा नही स्वयं महाकाली, शिव शक्तिधाम डासना में विराजमान है । कसौटी पत्थर से निर्मित अष्टभुजी महाकाली अपने एक हाथ में नरमुंड, एक हाथ में नागफास तथा अन्य हाथों मे अस्त्र -शस्त्र धारण किये हुऐ हैं । वे नरमुंडो की माला अपने गले में धारण किये हुए हैं । महाकाली यहाँ शव या शिव पर नहीं अपितु कमल पर विराजमान हैं ।एक शेर उनके श्रीचरणों में विराजित है । मुस्लिम आक्रामणकारियों के इस देश में आने से पहले यह स्थान सनातन धर्म के सर्वाधिक पूर्जित स्थलों में था । दूर -दूर से लोग यहाँ शिव और शक्ति की साधना और पूजा करने के लिये आते थे । मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जब पहली बार दिल्ली को जीता, तब उन्होनें इस मन्दिर को ध्वस्त कर दिया था । मन्दिर के तत्कालीन पुजारियों ने माँ की प्रतिमा को मन्दिर के पास बने सरोवर में छुपा दिया था । माँ को कई सौ साल तक इस सरोवर में विश्राम करना पड़ा । जिस के कारण इस सरोवर में देवीय गुण प्रकट हो गये । इस सरोवर की मिट्टी को लगागर श्रद्धापूर्वक स्नान करने से विकट से विकट चर्म रोग समाप्त हो जाता है । मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मन्दिर के पास एक बस्ती भी बना ली, धीरे -धीरे लोग इस तीर्थ स्थान को भूल गये।

जगदम्बा महाकाली डासना वाली

मन्दिर के खंडहरों पर एक टीला बन गया और मन्दिर परिसर एक सधन वन क्षेत्र में परिवर्तित हो गया, जब देश से मुस्लिमो का राज खत्म हो गया तब जगद गिरि नाम के एक तपस्वी इस क्षेत्र आये और उन्होने रात्रि विश्राम इस टीले पर किया1 रात्रि में माँ ने उन्हे स्वप्न में दर्शन दिये और उन तपस्वी से कहा कि मैं तालाब में हूँ , मझे यहाँ से निकालो और पुन:प्रतिष्ठित करो । श्री जगदगिरि जी महाराज ने तालाब से माँ को निकाला और मन्दिर निर्माण का कार्य शुरू किया ।

श्री जगद गिरि जी महाराज ने तालाब से मां को निकाला और मन्दिर निमार्ण का कार्य शुरू कर दिया । तब तक यहां बहुत बड़ी संख्या मुसलमानों की हो चुकी थी1 वे यहां मन्दिर नहीं बनने दे रहे थे । तब एक भयानक शेर यहां आ गया । पहले तो मन्दिर बनाने वाले कारीगर और स्थानीय हिन्दू शेर से डर गये पर जल्दी ही उन सबने देख लिया कि वो शेर किसी को भी कोई नुकसान नहीं पंहुचाता हैं । तब लोगो का भय समाप्त हो गया और उन्होंने जोर शोर से मन्दिर निर्माण का कार्य शुरू कर दिया । शेर की उपस्थिति मात्र से अंतताईयों का समूह भयभीत हो गया और उन्होंने मन्दिर निर्माण में बाधा डालना बन्द कर दिया । जिस दिन मन्दिर निर्माण का कार्य पूर्ण हआ उसी दिन शेर ने अपने प्राण त्याग दिये । भक्तों ने मां के मन्दिर के बिल्कुल सामने शेर की समाधि लगाई और वहां मिट्टी की प्रतिमा स्थापित कर दी , जिसे बाद में मोनी बाबा नाम के सन्यासी ने पत्थर की बनवा दिया । मन्दिर निर्माण पूर्ण होने के उपरान्त श्री जगदगिरि जी महाराज ने भी जीवित समाधि ले ली । धीरे – धीरे मन्दिर में पूजा अर्चना शुरू हो गई और क्षेत्र की जनता महाकाली को अपनी कुलदेवी के रूप मे पूजने लगे । जितने भी लोग इस मन्दिर में मन्नत मांगने के लिए आते हैं, भोले बाबा और मां काली उन सभी की मनोकामनाओं को अवश्य ही पूर्ण करते हैं । वर्ष में दोनों नवरात्रों में यहां सनातन धर्म की रक्षा के लिए अखण्ड बगलामुखी महयज्ञ का आयोजन किया जाता है जिसमें लाखों भक्तजन आहुति डालते हैं । नवरात्रों में मन्दिर परिसर में मेला लगता है । महन्त परम्परा में मन्दिर द्वारा संचालित इस मन्दिर में अनेक तपस्वियों ने अपनी सेवा दी है । जिनमें स्वामी ब्रहमानन्द सरस्वती , स्वामी गणेशानन्द सरस्वती , मौनी बाबा रामानन्द गिरि जी आदि प्रमुख हैं । उस का प्राचीन गौरव दिलवाने के लिए प्रयासरत हैं । उनकी शिष्य मंडली भी पूर्णत्या मन्दिर की सेवा में समर्पित है । ये अमूल जानकारी मुझे आदरणीय यति नरसिंहानन्द सरस्वती जी के माध्यम से प्राप्त हुई है । मैं हृदय से यति जी का आभारी हूं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि यति नरसिंहानन्द जी जिस लगन और विश्वास के साथ इस मन्दिर के प्राचीन गौरव दिलवाने के लिए प्रयासरत हैं उसमें उन्हें शीघ्र सफलता मिलेगी 1 मुझे भी दो तीन बार मन्दिर में दर्शन करने हेतू जाने का सौभाग्य मिला, मैंने स्वयं देखा है कि मन्दिर में अधिकांश कार्य हो चुका है 1 तालाब (सरोवर) का कार्य प्रगति पर है । चारों ओर की दीवार बन जाने से मन्दिर की सीमायें भी अब सुरक्षित हैं । यह सब कार्य धर्मनिष्ठ जनता के सहयोग एवं श्री नरसिंहानन्द सरस्वती की इच्छा शक्ति के कारण सम्भव हो सका है ।

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