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संपादकीय: बाबा साहब के मूल संविधान और सच्चे इतिहास की ओर लौटने का समय

डॉ. भीमराव अंबेडकर, भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार और समाज सुधारक, ने अपने जीवन में सामाजिक न्याय, समानता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर जोर दिया। उनके विचार आज भी समाज के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, विशेष रूप से शिक्षा, धर्म और राजनीति के संदर्भ में। आज उनकी जयंती पर हम उन्हें एवं उनके सिद्धांतों को स्मरण कर रहे हैं।

शिक्षा और आरक्षण पर दृष्टिकोण

डॉ. अंबेडकर ने शिक्षा को समाज सुधार का प्रमुख साधन माना। उन्होंने संविधान में 14 वर्ष तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया, ताकि सभी वर्गों के बच्चों को समान अवसर मिल सकें।

आरक्षण की व्यवस्था को उन्होंने अस्थायी उपाय के रूप में देखा, जिसका उद्देश्य समाज के पिछड़े वर्गों को समान अवसर प्रदान करना था। संविधान में इसे 10 वर्षों के लिए लागू करने की बात थी, और विशेष परिस्थितियों में इसे अधिकतम 20 वर्षों तक बढ़ाने की अनुमति थी। लेकिन वर्तमान में इसे 70 वर्षों से अधिक समय हो चुका है, जिससे समाज में असंतोष और असमानता की भावना उत्पन्न हो रही है।

बाबा साहब और धर्म के प्रति उनकी दृष्टि

बाबा साहब का दृष्टिकोण संतुलित था, लेकिन आँखें मूंद लेने वाला नहीं। उन्होंने ‘Pakistan or the Partition of India’ में लिखा कि:

“इस्लाम एक बंद निकाय है जिसमें भाईचारा केवल मुसलमानों के लिए है। गैर-मुसलमानों के प्रति उनके भीतर घृणा और असहिष्णुता है।”​

उसी पुस्तक में उन्होंने यह भी लिखा:

“विभाजन के बाद जनसंख्या का पूर्ण आदान-प्रदान अनिवार्य है। अन्यथा पाकिस्तान में बचे हिंदू और सिखों का सफाया कर दिया जाएगा, और भारत में बचे मुसलमान जनसंख्या विस्फोट कर देश को अस्थिर कर देंगे।”​

उनकी पुस्तक “Waiting for a Visa” में एक मार्मिक अनुभव सामने आता है जब वे औरंगाबाद के एक मुस्लिम बहुल गाँव में एक कुएँ से पानी पीना चाहते थे, तो मुसलमानों ने उन्हें अपमानित किया, जातिसूचक शब्द कहे और मौलवियों ने उन्हें मार डालने की धमकी तक दे डाली। यह घटना यह दिखाती है कि बाबा साहब सिर्फ हिंदू सामाजिक कुरीतियों के ही नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज में व्याप्त कट्टरता के भी विरोधी थे।

उनकी रचना “Who Were the Shudras?” में वे स्पष्ट करते हैं:

“आज के दलित और पिछड़े वर्ग वे वैदिक काल के शूद्र नहीं हैं। वे तो सामाजिक उत्पीड़न और कुरीतियों के शिकार हैं, जिनकी स्थिति निर्ममता से बनाई गई है।”​

गांधी के प्रति उनके विचार

डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण महात्मा गांधी के प्रति भी स्पष्ट और आलोचनात्मक था। उन्होंने BBC को दिए गए एक साक्षात्कार (1955) में कहा:

“Gandhi was never a Mahatma for me… He was never a real leader.”
Source: BBC Archives Interview with Dr. Ambedkar, 1955

महात्मा गांधी के बारे में, डॉ. अंबेडकर ने उन्हें कभी महात्मा नहीं माना और उनके सुधार प्रयासों को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखा। 1955 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि गांधी भारतीय इतिहास का महज एक हिस्सा हैं, कोई युग निर्माता नहीं। ​बाबा साहब का मानना था कि गांधी ने दलितों के अधिकारों को “हरिजन” कहकर कमजोर किया और उन्हें बराबरी के अधिकार देने में सच्ची नीयत नहीं दिखाई।

आज के तथाकथित अंबेडकरवादी और उनकी क्रियाएँ

आज जो लोग स्वयं को अंबेडकरवादी कहते हैं, वे अक्सर बाबा साहब के मूल सिद्धांतों के विपरीत कार्य करते हैं। उदाहरण स्वरूप:

  • जातिगत वैमनस्यता को बढ़ावा देना: कुछ तथाकथित अंबेडकरवादी अपने आचरण और विचारों से जातिवाद को बढ़ावा देते हैं, जो कि बाबा साहब के सिद्धांतों के खिलाफ है। डॉ. अंबेडकर ने स्वयं जातिवाद का विरोध किया था और इसे समाज की एकता के लिए हानिकारक माना था।
  • मुसलमानों को गले लगाना: जबकि बाबा साहब ने मुस्लिम समाज के प्रति अपनी चिंताएँ व्यक्त की थीं, आज के कुछ अंबेडकरवादी बिना समझे-परखे मुस्लिम समुदाय के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं, जिससे समाज में और अधिक विभाजन हो सकता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि डॉ. अंबेडकर ने मुस्लिम समाज के प्रति अपनी चिंताओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था। उन्होंने खिलाफत आंदोलन की आलोचना करते हुए कहा था कि मुसलमान भारत को अपनी मातृभूमि तथा हिंदुओं को सगे भाइयों के रूप में कभी भी मान्यता नहीं देंगे।

सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता

डॉ. अंबेडकर के विचार हमें यह समझाने में सहायता करते हैं कि समाज में समानता, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता क्यों आवश्यक हैं। उनके अनुसार, धर्मनिरपेक्षता समाज की विविधता को स्वीकार करने और सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान रखने की आवश्यकता को दर्शाती है। यह समाज में एकता और भाईचारे को बढ़ावा देती है, जिससे सामाजिक न्याय की स्थापना संभव होती है।

निष्कर्ष

डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं, विशेष रूप से शिक्षा, धर्म और राजनीति के क्षेत्रों में। उनकी दृष्टि हमें एक समावेशी और धर्मनिरपेक्ष समाज की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है, जहां सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर मिलें। उनकी शिक्षाओं का पालन करके, हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जो सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों पर आधारित हो।

जय मूल संविधान।

मुख्य स्रोत:

सोर्सेस

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