इतिहास मे एक मात्र ऐसे शुरवीर योद्धा बाबा दीप सिंह सिंधु जी ही है जो युद्धभुमि में सिर कटने के बाद भी उसे हथेली पर रख कर लड़ते रहे।
सूर्या बुलेटिन [मोदीनगर] बाबा दीप सिंह जी के माता-पिता भाई भगतु और माता जिओनी जी अमृतसर के गांव पहुविंड में रहते थे। भाई भगतु खेतीबाड़ी का कार्य करते थे और भगवान की कृपा से घर में किसी चीज की कमी नहीं थी। 26 जनवरी 1682 को बाबा दीप सिंह जी का जन्म उनके घर पर हुआ। एकलौता बेटा होने के चलते माता पिता ने दीप सिंह को बहुत लाड़ प्यार से पाला।
जब दीप सिंह जी 12 साल के हुए, तो उनके माता पिता उन्हें आनन्दपुर साहिब ले गए। जहां पहली बार उनकी भेंट सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से हुई। जिसके बाद दीप सिंह अपने माता पिता के साथ कुछ दिन वहीं रहे और सेवा करने लगे। कुछ दिनों बाद जब वह वापिस जाने लगे, तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीप सिंह के माता पिता से उन्हें यहीं छोड़ जाने को कहा तो इस बात को दीप सिंह व उनके माता पिता मान गए। आनन्दपुर साहिब में दीप सिंह जी ने गुरु जी के सान्निध्य में सिख दर्शन और गुरु ग्रंथ साहिब का ज्ञान अर्जित किया। उन्होंने गुरुमुखी के साथ-साथ कई अन्य भाषाएं सिखीं। यहां तक कि स्वयं गुरु गोबिंद सिंह जी ने उन्हें घुड़सवारी, शिकार और हथियारों की शिक्षा दी।
18 साल की उम्र में उन्होंने गुरु जी के हाथों से वैसाखी के पावन मौके पर अमृत छका और सिखी को सदैव सुरक्षित रखने की शपथ ली।इसके बाद गुरु जी के आदेश से बाबा दीप सिंह जी वापस अपने गांव पहुविंड अपने माता पिता के पास आ गए।
एक दिन बाबा दीप सिंह जी के पास गुरु जी का एक सेवक आया, जिसने बताया युद्ध के कारण गुरु जी आनन्दपुर साहिब का किला छोड़ कूच कर गए हैं। इस युद्ध के चलते गुरु जी की मां माता गुजरी और उनके 4 पुत्र भी सब यहां वहां बिछड़ गए हैं।
इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी फौरन गुरु जी से मिलने के लिए निकल पड़े। कुछ समय की तालाश के पश्चात् आखिरकार बाबा दीप सिंह और गुरु जी की मुलाकात तलवंडी के दमदमा साहिब में हुई.
यहां पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी को पता चला कि गुरु जी के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए है और उनके दो छोटे पुत्र ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद में वजीर खान ने बेदर्दी से मरवा दिया है।
इसके उपरांत बाबा दीप सिंह ने पंथ के लिए कई युद्धों में भाग लिया। 1707 में बाबा दीप सिंह जी ने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर पंजाब की आजादी के युद्ध में भी भागीदारी दी।
बाबा दीप सिंह जी का सिखों के आपसी झगड़ों को सुलझाने में अहम योगदान रहा है। एक समुदाय था बंदही खालसा, जो कि बंदा सिंह बहादुर को गुरु गोबिंद सिंह जी का आखिरी सिख मानते थे और दूसरे थे टट खालसा, जो कि गुरु जी द्वारा रचित ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे। इन दोनों समुदायों में श्री हरिमंदिर साहिब पर हक जमाने को लेकर झगड़ा होने लगे थे। इस दौरान बाबा दीप सिंह जी ने दोनों समुदायों के बीच के इस झगड़े को समाप्त करने के लिए काम किया। उन्होंने दो पर्चियों पर एक-एक समुदाय का नाम लिखकर सरोवर में फेंक दी दोनों पर्चियों में से टट खालसा की पर्ची तैरती रही और दूसरी डूब गई।जिसके कारण बंदही खालसा समुदाय को हरमंदिर साहिब से जाना पड़ा।
अब्दाली की गिरफ्त से लोगों को बचाया 1755 में जब भारत में मुस्लिम शासकों का आतंक बढ़ा, तो लाचार लोगों की चीख पुकार बाबा दीप सिंह जी के कानों तक पहुंची। उस समय अहमद शाह अब्दाली नाम के एक अफगानी शासक ने भारत में बड़ी तबाही मचाई हुई थी। वह 15 बार भारत आकर उसे लूट चुका था. उसने दिल्ली समेत आसपास के कई शहरों से न सिर्फ सोना, हीरे व अन्य चीजें लूटीं, बल्कि हजारों लोगों को भी बंदी बना कर अपने साथ ले गया था। इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी अपनी एक सैनिक टुकड़ी लेकर अब्दाली के छिपे ठिकाने पर पहुंचे। यहां मौजूद मुस्लिम सैनिकों को काट डाला और लूटे गए सामान को जब्द कर लिया और बंधक हिन्दू बहन बेटियों को छुड़ाया। इस बात से गुस्साए अब्दाली ने फैसला कर लिया कि वह सिख समुदाय को पूरी तरह से मिटा देगा
इसके चलते 1757 में अब्दाली का सेनापति जहान खान फौज के साथ हरिमंदिर साहिब को तबाह करने के लिए अमृतसर पर चढ़ आया। कई सिख सैनिक हरिमंदिर साहिब को बचाते हुए मारे गए। इस समय बाबा दीप सिंह दमदमा साहिब में थे। जब उन्हें इस हमले के बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने फौरन सेना के साथ अमृतसर की ओर कूच किया। इस युद्ध के समय उनकी उम्र 75 साल थी। अमृतसर सीमा पर पहुंचने पर बाब दीप सिंह जी ने सभी सिखों से कहा कि इस सीमा को केवल वही सिख पार करें जो धर्म की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। धर्म के लिए आह्वान सुनते ही सभी पूरे जोश के साथ आगे बढ़े।
आखिरकार गांव गोहरवाल में दोनों सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने आ गई। युद्ध का बिगुल बजते ही फौजे युद्ध के मैदान में उतर आईं। युद्ध में बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े। अचानक अब्दाली का सेनापति जमाल खान बाबा जी के सामने आ गया दोनों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ। आखिर में दोनों ने पूरी ताकत से अपनी-अपनी तलवार चलाई जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए।
बाबा जी का शीश अलग होता देख एक नौजवान सिख सैनिक ने चिल्ला कर बाबा जी को आवाज दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया।
इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ एक दम से खड़ा हो गया. उन्होंने अपना सिर उठाकर अपनी हथेली पर रखा और अपनी तलवार से दुश्मनों को मारते हुए श्री हरिमंदिर साहिब की ओर चलने लगे।
बाबा जी को देख सिखों में जोश भर गया। इस युद्ध में जमाल ख़ान सहित लगभग 15000 मुस्लिम सैनिक मारे गए बचे-खुचे डर के मारे भाग गया। इस युद्ध में सिखों की जीत हुई
अंतत: बाबा दीप सिंह जी श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ा कर प्राण त्याग दिए।
लेखिका – वीरांगना संजू चौधरी